Tuesday, August 3, 2010

मन मयूरा


मन मयूरा थक रहा बादल घनघोर
आँखें देखती इस ओर तो कभी उस ओर

गरजती हुई घटा और चमकती सी बिजली
उस पर फिर चलते हुए पवन का शोर
व्याकुल ह्रदय एक ख्वाहिश संजोती रही
कि रिमझिम बूँदें बरसें इस छोर

साथ बारिश के बादल भी खींच लूं
अगर बना लूं अम्बर से धरती तक डोर

हौले- हौले टपकती मोतियों सी बूँदें
ये मौसम बन रहा धरती का सिरमौर

हर्षित हो कर नृत्य में मग्न हूँ
समस्त वातावरण हुआ आनंद विभोर
यह रचना हमारे एक मित्र नईम जी के ब्लॉग "हज़ार अशार" से ली गई है...
(
http://nayeemnahi.blogspot.com/)