पानी बहती जाती है
पानी प्यास बुझाती है
आँखों से होकर
मन को हल्का कर जाती है
कभी बादलों से फिर
खेत में फसल लहलहाती है
यही सागर भी है जहाँ
सीप में ढल के मोती बन जाती है
यही कश्तियाँ, नाव और जहाज को
दरिया से मंजिल तक पहुंचाती है
कभी सर्द बर्फ है कभी गर्म भाप
ये हर शै में खुद ढल जाती है
पानी इसका कोई रंग रूप नहीं
फिर भी जिन्दगी का जरिया बन जाती है
पानी इसकी हर बूँद की कीमत है
किसी किसी को ही ये समझ आती है......
यह रचना हमारे एक मित्र नईम जी के ब्लॉग "हज़ार अशार" से ली गई है...