Friday, May 7, 2010

पानी





पानी बहती जाती है
पानी प्यास बुझाती है
आँखों से होकर
मन को हल्का कर जाती है

कभी बादलों से फिर
खेत में फसल लहलहाती है

यही सागर भी है जहाँ
सीप में ढल के मोती बन जाती है

यही कश्तियाँ, नाव और जहाज को
दरिया से मंजिल तक पहुंचाती है

कभी सर्द बर्फ है कभी गर्म भाप
ये हर शै में खुद ढल जाती है

पानी इसका कोई रंग रूप नहीं
फिर भी जिन्दगी का जरिया बन जाती है

पानी इसकी हर बूँद की कीमत है
किसी किसी को ही ये समझ आती है......

यह रचना हमारे एक मित्र नईम जी के ब्लॉग "हज़ार अशार" से ली गई है...