कुंवर जल लोचन भरि भरि लैत।
बालक बदन बिलोकि जसोदा कत रिस करति अचेत॥
छोरि कमर तें दुसह दांवरी डारि कठिन कर बैत।
कहि तोकों कैसे आवतु है सिसु पर तामस एत॥
मुख आंसू माखन के कनिका निरखि नैन सुख देत।
मनु ससि स्रवत सुधाकन मोती उडुगन अवलि समेत॥
सरबसु तौ न्यौछावरि कीजे सूर स्याम के हेत।
ना जानौं केहिं पुन्य प्रगट भये इहिं ब्रज-नंद निकेत॥१७॥
(सूरदास जी के पद से )
अर्थ
एक गोपी शायद वही जो उलाहना देने आयी थी कृष्ण को इस तरह बंधन में पड़ा देखयशोदा से कहती है अरी यशोदा तनिक कन्हैया की ओर देख तो।बच्चे की आंखेंडबडबा गयी हैं। क्यों इतना क्रोध कर रही है यह कठिन डोरी कुंबर की कमर से खोल दे और यह छड़ी फेंक दे यह पांच बरस का निरा बच्चा ही तो है। कहीं नन्हें-से बालक पर इतना क्रोध किया जाता है इस समय भी कुंवर कान्हा कैसा सुन्दर लगता है मुख पर आँसुं की बूंदें टपक रही हैं और माखन के कण भी इधर-उधर लगे हुए हैं। ऐसा लगता है जैसे तारां सहित चंद्रमा अमृत के कणों और मोतियों की वर्षा कर रहा हो। यह शोभा भी नेत्रों को आनन्द देती है। यशोदा यह वह मोहिनी मूरत है जिस पर सर्वश्व न्यौछावर कर देना चाहिए। न जाने पूर्व के किस पुण्य प्रताप से नन्द बाबा के घर में आकर इस सुन्दर बालक ने जन्म लिया है।
1 comment:
धन्यवाद संजय जी.
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